10 मार्च को पांच राज्यों (Five States) के विधानसभा चुनाव परिणाम (Assembly Election Results) आ जाने के बाद देश में एक बार फिर से राजनीतिक गुणा-भाग का दौड़ शुरू हो जाएगा. क्योंकि, इस साल ही देश को नए राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति (President and Voice President Election) का चयन होना है. राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के चुनाव में राज्य के विधानसभाओं और उनके प्रतिनिधियों की भी भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है. ऐसे में हाल ही में संपन्न होने वाला विधानसभा चुनाव परिणाम बहुत हद तक देश की राजनीतिक दिशा तय कर सकता है. ऐसे में अगर क्षेत्रीय दलों का दबदबा होता है तो जाहिर है कि संभावित राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के चुनाव में देश की दो बड़ी राष्ट्रीय पार्टियों को क्षेत्रीय दलों से गंभीर चुनौती मिल सकती है.
जानकार मानते हैं कि अगर सत्ता पक्ष का समीकरण बिगड़ता है तो क्षेत्रीय दलों के सहयोग के बिना कोई भी गठबंधन अपने पसंद का राष्ट्रपति नहीं बना सकता है. इसके साथ ही कई राजनेताओं और पार्टियों का भविष्य भी इस चुनाव के बाद तय होना है. अगर पिछले कुछ दिनों में राजनीतिक मुलाकातों पर नजर डालें तो यह स्थिति और स्पष्ट हो जाती है.
क्षेत्रीय दलों के सहयोग के बिना क्या राष्ट्रपति बनाया जा सकता है? (फाइल फोटो)
क्षेत्रीय दलों की भूमिका कितना अहम?
बता दें कि पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव से शुरू हुई क्षेत्रीय पार्टियों की सक्रियता अब सतह पर आ गई है. दिलचस्प है इन क्षेत्रीय पार्टियों का उदय तो क्षेत्रीय मुद्दों पर हुई हैं, लेकिन अब एक हो कर राष्ट्रीय पार्टियों खासकर बीजेपी और कांग्रेस को चुनौती देने का मन बना रही हैं. हालांकि, यह आसान नहीं है क्योंकि एक दूसरे के खिलाफ इनका टकराव भी जगजाहिर है.
क्या क्षेत्रीय दलों मे एकजूटता बरकरार रहेगी?
पंजाब के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को सीधे टक्कर आप और अकाली दल से है तो गोवा में ममता बनर्जी की पार्टी टीएमसी की पार्टी आप को विधानसभा में घुसने के विरोध में खड़ी है. यही कारण है कि ममता यूपी के चुनाव में अखिलेश के साथ मिलकर बीजेपी को ललकार रही है, लेकिन पंजाब में कहीं नहीं दिखती है. जाहिर इन पार्टियों के हितों का दायरा बहुत ही संकुचित है.