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आखिर क्यों भारत को जी-7 में शामिल कर जी-8 बनाने की जरूरत है

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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सोमवार को जी-7 शिखर सम्मेलन में शामिल होंगे. उन्हें मेजबान जर्मनी ने सम्मेलन में शामिल होने के लिए निमंत्रित किया है. 2000 के दशक की शुरुआत से ही भारत इस मंच पर नियमित भागीदारी कर रहा है, जो तमाम राष्ट्रों के वैश्विक समुदाय के बीच भारत की बढ़ती महत्ता को दर्शाता है. लेकिन ऐसा हमेशा से नहीं था. जी-7 दुनिया की उन्नत और संपन्न अर्थव्यवस्थाओं का एक समूह था, जिसकी स्थापना 1970 के दशक में हुई थी. इसकी स्थापना के पीछे अमेरिका का उद्देश्य अपने तटों से परे समूह के रूप में अपनी शक्ति को प्रस्तुत करना था. लेकिन 1970 के बाद दुनिया में बहुत बदलाव हुए हैं. कनाडा और इटली जैसे देश दुनिया की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में नहीं रहे.

भारत और चीन औपचारिक रूप से जी-7 का हिस्सा नहीं हैं, लेकिन दुनिया की शीर्ष 7 अर्थव्यवस्थाओं में शामिल हैं. रूस कभी G-7+1 का हिस्सा हुआ करता था, लेकिन 2014 में क्रीमिया पर कब्जा करने के बाद से उसे आमंत्रित करना बंद कर दिया गया. प्रधानमंत्री मोदी की जर्मनी यात्रा से पहले, पिछले हफ्ते विदेश सचिव विनय मोहन क्वात्रा ने कहा था कि G-7 शिखर सम्मेलन में भारत की नियमित भागीदारी साफतौर पर दर्शाती है कि दुनिया के सामने जो बड़ी चुनौतियां हैं उनका सामना करने के लिए पश्चिम को भारत के समर्थन की ज़रूरत है.

अर्जेंटीना, इंडोनेशिया, सेनेगल और द. अफ्रीका को भी न्योता
भारत के अलावा जर्मनी ने इस साल सम्मेलन में अर्जेंटीना, इंडोनेशिया, सेनेगल और दक्षिण अफ्रीका को भी बतौर मेहमान आमंत्रित किया है. इसके पीछे दक्षिण के लोकतंत्र को अपने भागीदारों के तौर पर मान्यता देने की कोशिश है. जर्मनी इस साल बवेरियन आल्पस में श्लॉस एल्मो के समुद्र तटीय रिजॉर्ट में G-7 के अध्यक्ष के रूप में शिखर सम्मेलन की मेजबानी कर रहा है.

इस साल शिखर सम्मेलन की पृष्ठभूमि में रूस-यूक्रेन युद्ध है. यहां एक बार फिर से भारत की स्थिति अमेरिका और यूरोप से अलग है. संघर्ष की शुरुआत से ही युद्धस्थिति को रोकने के मामले में भारत की स्थिति हमेशा से ही साफ रही है. लेकिन इसके साथ ही भारत ने संयुक्त राष्ट्र संघ और महासभा में अधिकतर वोट देने से परहेज रखा. भारत खुद को रूस के खिलाफ वोट देता हुआ नहीं दिखाना चाहता है.

भारत का रूस से तेल खरीदना दिक्कत का विषय
युद्ध के बावजूद भारत का रूस से लगातार तेल खरीदना एक दिक्कत का विषय बना हुआ है. भारतीय विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने बताया था कि जितना तेल यूरोप एक दोपहर में खरीद लेता है उतना तेल भारत पूरे महीने में खरीदता है. लेकिन उपलब्ध डेटा बताता है कि युद्ध से पहले भारत की रूस से तेल की खरीदी 2 फीसद थी जो अब बढ़कर 6-7 फीसद हो चुकी है. भारत को यह समझाने में काफी परेशानी हो रही है कि उसके ऊर्जा के स्रोत पूरी तरह से देश हित से प्रेरित हैं.

इस मामले में विदेश सचिव विनय मोहन क्वात्रा ने कहा था कि पूरी दुनिया में क्रूड ऑयल की खरीद के लिए भारत जो भी व्यापारिक व्यवस्था करता है वह पूरी तरह से भारत की ऊर्जा सुरक्षा के मद्देनजर निर्धारित है. इसके अलावा इसके पीछे और कोई दूसरा विचार नहीं है. उन्होंने कहा कि मुझे लगता है कि बात बहुत अच्छी तरह से समझी जा सकती है, मुझे इस मामले में किसी तरह का कोई दबाव बनाए जाने का तुक नजर नहीं आता है. भारत ने जहां से ज़रूरत है तेल व्यापार और खरीद को जारी रखा है.

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