भारत में कोरोना से बचाव के लिए वैक्सीनेशन तेजी से शुरू हो गया है. वैक्सीनेशन अभियान में यूएस की बनी मॉडर्ना चौथी वैक्सीन है जिसे भारत में आपातकाल इस्तेमाल की मंजूरी मिली है. mRNA तकनीक जिससे ये वैक्सीन बनी है उसके असर की दर ट्रायल के दौरान काफी अच्छी पाई गई थी. केंद्र ने विदेशों में बनी वैक्सीन के भारत पहुंचने को लेकर कुछ खास व्यवस्थाएं की हैं. नियम, कानून और बुनियादी ढांचे से जुड़े मुद्दे हैं जो इन्हें अभी तक देश में आने में बाधा बने हुए थे. मॉडर्ना की अनुमति से अंदाजा लगाया जा सकता है कि देश में बड़े स्तर पर टीकाकरण की योजना है जिससे कोविड-19 की तीसरी लहर से बचा जा सके.
यूएस में फाइजर-बायो एन टेक और मॉडर्ना और भारत की जायडस कैडिला की जायको वी-डी को न्यूक्लिक एसिड वैक्सीन के तौर पर वर्गीकृत किया गया है. लेकिन जायडस कैडिला वैक्सीन एक डीएनए वैक्सीन है. वहीं, मॉडर्ना और फाइजर वैक्सीन एमआरएनए तकनीक पर आधारित है. वैसे ये दोनों एक ही श्रेणी की वैक्सीन है क्योंकि दोनों का इस्तेमाल पैथोजन या इस मामले में वायरस के जैनेटिक मटेरियल से लड़ाई के लिए इम्यून सिस्टम को तैयार किया जाता है. इस तरह की वैक्सीन के निर्माण में वैज्ञानिक वायरस में मौजूद जैनेटिक मटेरियल को अलग कर उसे मानव शरीर के अंदर डालते हैं.
कैसे काम करती है ये वैक्सीन?
कोविड -19 के मामले में ये जेनेटिक मटेरियल मानव कोशिका को विशेषतौर पर स्पाइक प्रोटीन तैयार करने के लिए उकसाता है. ये स्पाइक प्रोटीन वायरस की सतह पर रहता है और नोवेल कोरोना वायरस को लोगों को संक्रमित करने में मदद करता है. जैसे ही मानव कोशिका इस स्पाइक प्रोटीन को पैदा करती है, इम्यून सिस्टम इसे एक खतरे की तरह लेता है और इसके खिलाफ एंटीबॉडी तैयार करता है. इस तरह से वायरस के खिलाफ लड़ाई लड़ी जाती है. इस तरह की वैक्सीन से अच्छा इम्यून रिस्पांस मिलता है और ये सुरक्षित भी है क्योंकि इसमें वायरस का कोई भी जीवित तत्व इस्तेमाल नहीं होता है. जो संक्रमण को बढ़ावा दे सकता है. इसके लिए जो तरीका इस्तेमाल किया जा रहा है वो नया है और इस तरह की वैक्सीन को आपातकाल इस्तेमाल की मंजूरी मिली है. इंसानों में इस्तेमाल के लिए कोई भी न्यूक्लिक ऐसिड वैक्सीन अभी तक बाजार में नहीं आई थी हालांकि जानवरों के लिए डीएनए वैक्सीन ज़रूर उपलब्ध है.
क्या ये विभिन्न वैरियंट के खिलाफ काम करेगी?
यूएस में फाइजर के बाद मॉडर्ना दूसरी एमआरएनए वैक्सीन है जिसे मंजूरी मिली है. दोनों के ही दो डोज दिए जाते हैं. शुरुआती क्लीनिकिल ट्रायल में मॉडर्ना के काफी अच्छे परिणाम देखने को मिले थे. इसने कोरोना वायरस के खिलाफ 94.1 फीसदी असर दिखाया था. विशेषज्ञों का कहना है कि दूसरा डोज लगने के दो हफ्ते के बाद वायरस के खिलाफ पूरी तरह से इम्यूनिटी विकसित होती है. वहीं असल दुनिया में इसके असर की अगर बात करें तो इसका असर 90 फीसदी रहा है.
मॉडर्ना का कहना है कि ये वैक्सीन डेल्टा वैरियंट या B.1.617.2 जो सबसे पहले भारत में पाया गया था उससे लड़ने में भी सक्षम है. वैक्सीन निर्माताओं का कहना है कि वैक्सीन डेल्टा वैरियंट के खिलाफ ज्यादा बेहतर एंटीबॉडी बनाती है बनिस्बत बीटा वैरियंट या B.1.351 के जो सबसे पहले दक्षिण अफ्रीका में पाया गया था.
क्या ये वैक्सीन भारत में निर्मित होगी?
जीएवीआई यानी वैक्सीन संगठन के मुताबिक न्यूक्लिक एसिड वैक्सीन काफी हद तक तुरंत और आसानी से डिजाइन की जा सकती है बस एक बार वायरस का जीनोम सीक्वेंस हो जाए. मॉडर्ना वैक्सीन सार्स कोवी 2 के जीनोम सीक्वेंस होने के दो महीने के भीतर क्लीनिकल ट्रायल पर चला गया था. रिपोर्ट बताती हैं कि वैक्सीन का पहला डोज मॉडर्ना के देश मे साझेदार सिपला के पास आयात होगा. ये एक तरह से दान के रूप में होगा. हालांकि इसे लेकर अभी तक कोई पुष्टि नहीं हुई है कि वैक्सीन बाज़ार में कब तक आ पायेगी.
फाइजर की तरह मॉडर्ना का भी भारत में क्षतिपूर्ति और ब्रिजिंग ट्रायल अहम मुद्दा था, जिसकी वजह से इसे अभी तक ये भारत से दूरी बनाए हुई थी. मॉडर्ना वैक्सीन को आपातकालीन मंजूरी देने के निर्णय की घोषणा करते हुए, नीति आयोग के सदस्य डॉ वीके पॉल ने कहा कि क्षतिपूर्ति का मुद्दा, जिसका अर्थ भारत में कानूनी दायित्व से छूट है, उस पर बात चल रही है.
सामग्री यानी लॉजिस्टिक भी एमआरएनए वैक्सीन के भारत में लांच की एक अहम वजह है. जैसे वैक्सीन को अत्यधिक ठंडे स्टोरेज की ज़रूरत होती है. हालांकि इस पर पॉल का कहना है कि वैक्सीन के वायल को 30 दिन तक 2-8 डिग्री सेल्सियस के तापमान पर रखा जा सकता है जो सुविधा भारत के कोल्ड स्टोरेज में उपलब्ध है. लेकिन लंबे वक्त तक अगर इस वैक्सीन को फ्रीज करके रखना है तो उसके लिए -20 डिग्री सेल्सियस की ज़रूरत होती है.