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Legal Explainer: राजद्रोह और देशद्रोह में फर्क है, जानें क्या हैं विधि आयोग की सिफारिशें

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22वें विधि आयोग के अध्यक्ष रिटायर्ड जज रितुराज अवस्थी ने नये कानून मंत्री अर्जुनराम मेघवाल को राजद्रोह कानून में बदलाव के लिए आयोग की रिपोर्ट सौंपी है. इसके अनुसार राजद्रोह अपराध के लिए बनी IPC की धारा-124-ए के दुरुपयोग की वजह से, उसे निरस्त करने की जरुरत नहीं है. पिछले साल सुप्रीम कोर्ट ने राजद्रोह कानून के इस्तेमाल पर अंतरिम रोक लगा दी थी. विधि आयोग की रिपोर्ट के अनुसार क़ानून में बदलाव नहीं हुआ तो मानसून सत्र के बाद Supreme Court में इस मामले पर सुनवाई होगी.

1. अंग्रेजों के समय का कानून- इंग्लैंड में सन् 1275 के आस-पास वेस्ट मिनिस्टर के तहत राजतंत्र के देवत्व को बचाने की पहल से इस कानून की नींव पड़ी. इंग्लैंड में 1845 में इस बारे में कानून बना. 1870 में उसी तर्ज पर भारत में आईपीसी में धारा-124-ए से राजद्रोह के अपराध का कानून अंग्रेजों ने बनाया. इसके मुताबिक अगर कोई व्यक्ति सरकार के खिलाफ गलत लिखना, बोलना या गलत बातों का समर्थन करता है तो न्यूनतम 3 साल से अधिकतम उम्रकैद तक की सजा और जुर्माना हो सकता है. यह गैर-जमानती अपराध है, जिसमें आरोपी का पासपोर्ट भी रद्द हो सकता है. किसी व्यक्ति के खिलाफ राजद्रोह का मामला दर्ज हो जाये तो वह सरकारी नौकरी के लिए आवेदन नहीं कर सकता.

2. नेहरु और इंदिरा गांधी ने कानून को सख्त बनाया- संविधान सभा में के.एम.मुंशी ने कहा था कि लोकतांत्रिक देश में आलोचना और असहमति का आदर करना चाहिए. इसलिए अभिव्यक्ति की आजादी के लिए बने अनुच्छेद 19 के अपवाद में राजद्रोह को नहीं रखा गया था. प्रधानमंत्री नेहरु ने संविधान में पहले संशोधन से अनुच्छेद-19 (2) में पब्लिक ऑर्डर को अभिव्यक्ति की आजादी का अपवाद बनाकर राजद्रोह कानून को संवैधानिक कवच प्रदान किया. उसके बाद 16वें संविधान संशोधन से देश की एकता और अखण्डता के प्रावधान को अपवाद के तौर पर जोड़ा गया. इमरजेंसी के पहले इंदिरा गांधी ने Cr.PC कानून में राजद्रोह को संज्ञेय अपराध बनाकर इसे और सख्त कर दिया. राज्यों में विपक्षी नेताओं के खिलाफ सभी दलों की सरकारों ने इस कानून का दुरुपयोग किया है. NCRB के आंकड़ों के मुताबिक 5 साल में इस कानून के तहत 356 मामले दर्ज हुए और 548 लोगों की गिरफ्तारी हुई. लेकिन अदालतों से सिर्फ 12 लोगों को ही दोषी साबित किया जा सका.

3. कानून को रद्द करने की मांग- गुलाम भारत में लोकमान्य तिलक और महात्मा गांधी के खिलाफ अंग्रेजों ने इस कानून का बेजा इस्तेमाल किया. संविधान बनने के बाद इस कानून को अनुच्छेद-14 (बराबरी का अधिकार), 19 (अभिव्यक्ति की आजादी) और 21 (जीवन के अधिकार) के खिलाफ माना जाता है. राजद्रोह यानि राजा के खिलाफ विद्रोह लेकिन राजशाही खत्म होने के बाद राजद्रोह के कानून का औचित्य नहीं है. इंग्लैंड में यह कानून सन् 2009 में निरस्त हो गया. उसके बाद से भारत में भी इसे रद्द करने की मांग हो रही है. 2019 के आम चुनावों में कांग्रेस ने अपने घोषणापत्र में राजद्रोह कानून को खत्म करने की बात कही थी. UPA-2 के शासनकाल में कम्युनिस्ट सांसद डी. राजा ने इस कानून को खत्म करने के लिए सन् 2011 में Private Bill पेश किया था, लेकिन सरकार ने कोई कार्यवाही नहीं की. भाजपा सरकार बनने पर कांग्रेस सांसद शशि थरुर ने इस बारे में निजी विधेयक पेश किया, तब भी संसद से कानून नहीं बदला.

4. राजद्रोह और देशद्रोह में कानूनी फर्क- राजद्रोह और देशद्रोह में बहुत बड़ा कानूनी फर्क है.देश की एकता और अखण्डता को खण्डित करना, सुरक्षा के साथ खिलवाड़ करना, पृथकतावाद और आतंकवाद फैलाने जैसे मामले देशद्रोह के दायरे में आते हैं. ऐसे संगीन अपराधों से निपटने के लिए IPC में विशेष प्रावधान के साथ UAPA, मकोका और NSA जैसे सख्त कानून संसद से बनाये गये हैं. अंग्रेजों की राजशाही खत्म होने के बाद भारत के संविधान के तहत हर 5 साल में चुनावों से सरकार बदल सकती है. इसलिए आजादी के बाद लोहिया और डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी जैसे नेताओं ने इस कानून को रद्द करने की मांग की थी. लेकिन देश की एकता, अखण्डता और सुरक्षा के साथ कोई भी खिलवाड़ नहीं हो सकता, इसलिए देशद्रोह से जुड़े कानूनों को ख़त्म करने की ज्यादा मांग नहीं होती.

5. Law Commission की सिफारिशें- फरवरी 2020 में 22वें विधि आयोग का गठन तीन साल के लिए किया गया था. लेकिन चेयरमैन की नियुक्ति नवम्बर 2022 में हुई. सरकार ने नए आदेश से आयोग का कार्यकाल अगस्त 2024 तक बढ़ा दिया है. राजद्रोह कानून की समीक्षा के साथ Law Commission समान नागरिक संहिता के मसौदे पर भी काम कर रहा है. राजद्रोह कानून पर आयोग की रिपोर्ट के अनुसार इसके दुरुपयोग के लिए केन्द्र सरकार मॉडल गाइडलाइंस को जारी कर सकती है. इस संदर्भ में आयोग ने सुझाव दिया है कि Cr.PC 1973 कानून की धारा-196 (3) के तहत धारा-154 में नया प्रावधान जोड़ा जा सकता है. इसके अनुसार IPC की धारा-142 (ए) के तहत FIR दर्ज करने से पहले आवश्यक प्रक्रियागत सुरक्षा उपलब्ध होनी चाहिए. इसके तहत इंस्पेक्टर लेवल के अधिकारी की शुरुआती जांच और सरकार की इजाजत के बाद, राजद्रोह अपराध के मामलों में एफआईआर दर्ज होनी चाहिए. आयोग ने इस अपराध के तहत न्यूनतम सजा को 3 वर्ष से बढ़ाकर 7 साल करने की सिफारिश की है. अन्य देशों में इस कानून को खत्म करने के बारे में आयोग का कहना है कि भारत की जमीनी हकीकत से आंखें मूंदना ठीक नहीं है. आयोग के अनुसार औपनिवेशिक विरासत होने या फिर कानून के दुरुपयोग के आधार पर इसे खत्म करने का कोई वैध आधार नहीं है. विपक्षी नेताओं के अनुसार सुप्रीम कोर्ट ने इस कानून पर अंकुश लगाने की बात कही है, लेकिन सरकार इसे और खतरनाक बना रही है. कानून मंत्री के अनुसार Law Commission की सिफारिशें बाध्यकारी नहीं हैं. इसलिए इस कानून का निरस्तीकरण या कोई भी बदलाव सुप्रीम कोर्ट के 7 जजों की बेंच के फैसले या फिर संसद से ही होगा.

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