जगह
निखिल वॉशरूम से बड़ी तेजी के साथ अपनी क्लास की ओर जा रहा था। भूख के मारे उसके पेट में चूहे कूद रहे थे। हाफटाइम हो चुका था। वह हाफटाइम होने का बेसब्री से इंतजार कर रहा था। इतना कि हाफटाइम से ठीक पहले लगनेवाले मैथ के पीरियड में उसका ध्यान न पढ़ने में था, न ही ब्लैकबोर्ड पर हल किए सवाल के फॉर्मूले पर। दरअसल, रात में उसने ठीक से भोजन नहीं किया था। घर में जब भी लौकी की सब्जी बनती थी, वह बेमन से एकाध रोटी खा पाता था। मम्मी का कहना था—‘सबकुछ खाने की आदत डालो, यह क्या कि लौकी-कद्दू नहीं खाएँगे! भूख लगी होगी, तो ये फायदेमंद सब्जियाँ बुरी नहीं, अच्छी लगेंगी। न खाने के सौ बहाने!’
सो एक तरह से रात का खाना उसने खाया ही नहीं था। देर रात तक पढ़ाई करने के कारण उसे प्रातः उठने में रोज से अधिक समय हो गया था। पर हाँ, सुबह वह इस बात पर प्रसन्न था कि मम्मी ने नाश्ते में उसकी पसंद के गोभी-आलू के पराँठे और नीबू का मीठा अचार टिफिन में रखा था। उसकी भूख जाग उठी थी, मगर देर से उठने की वजह से इतना समय नहीं था कि वह एक-दो पराँठे खा सके। किसी तरह जल्दी-जल्दी दूध पीकर तेज-तेज साइकिल चलाता स्कूल आया था।
इस समय तेज कदमों से जैसे ही निखिल ने क्लासरूम में प्रवेश किया, तो सन्न रह गया। ऋषभ उसके बस्ते के पास बैठा, उसका टिफिन खोलकर पराँठे खा रहा था। वह दौड़कर आया और ऋषभ से टिफिन छीन लिया! मगर यह क्या? आधे से ज्यादा टिफिन खाली था! एक पराँठा ही बचा था, वह भी पूरा नहीं था, और अचार पूरा ही गायब! भूखे निखिल की आँखों में आँसू आ गए। उसे ऋषभ पर बेहद गुस्सा आया, पर वह चुप रह गया। उसे मम्मी की हिदायत याद आ गई। जब तेज गुस्सा आए, तब मुँह बंद कर लेना चाहिए। कभी भी गुस्से का जवाब गुस्से से नहीं देना चाहिए। वे खुद भी ऐसा ही करती थीं। निखिल मन मसोसकर रह गया। किसी तरह उसने बचा हुआ पराँठा खाकर पानी पिया और ऋषभ से बिना कुछ बोले वह बाहर निकल आया।
दूसरे दिन लंचटाइम में निखिल ने बस्ते से अपना नाश्ता निकाला और बगीचे के उस ओर पड़ी बेंच पर जा बैठा, जहाँ पेड़ों की घनी छाँव थी। अभी लंच शुरू करता कि उसने ऋषभ को अपनी ओर आते देखा। सशंकित हो उसने टिफिन खोला और जल्दी-जल्दी खाने लगा। आज मम्मी ने वेज बिरयानी रखी थी नाश्ते में। चारों ओर वेज बिरयानी की भीनी खुशबू फैल गई। अब तक ऋषभ आकर निखिल के बिल्कुल सामने खड़ा था। बिना कुछ कहे उसने पूरी ताकत से टिफिन खुलवाया और कुछ ही मिनटों में वेज बिरयानी चट कर गया।
निखिल बेबस सा बैठा रह गया। गुस्से से उसका मुँह लाल हो गया। मुट्ठियाँ भिच गईं। इतने पर भी उसने ऋषभ से कुछ नहीं कहा। आज भी निखिल कल की तरह भूखा ही रह गया।
घर आकर उसने अपनी मम्मी को सबकुछ बता दिया कि किस तरह से ऋषभ उसका खाना छीनकर खा जाता है। निखिल की बात सुनकर मम्मी को बहुत गुस्सा आया। किंतु संयत होकर उन्होंने निखिल से कहा, ‘‘तुम्हें अपनी क्लास टीचर से ऋषभ की करतूत बता देनी चाहिए थी।’’ मम्मी की बात सुनकर निखिल ने कहा, ‘‘मम्मा, ऋषभ बहुत लालची और बेशर्म है। दो दिन पहले उसने मेरे दोस्त अर्पित का टिफिन खाया था। अर्पित ने उसे बहुत मारा था। क्लासटीचर मैम से शिकायत भी कर दी थी! मैम ने पूरे टाइम ऋषभ को क्लास से बाहर खड़े होने की सजा दी थी। लेकिन अगले दिन ऋषभ ने फिर से अर्पित का टिफिन खा लिया।’’ सुनकर मम्मी ने कहा, ‘‘ओह! यह तो खराब बात है! खैर, तुम चिंता मत करो, कल से तुम भूखे नहीं रहोगे। मैं कुछ करती हूँ, और हाँ, अभी ऋषभ से अच्छा या बुरा कुछ भी मत कहना। तुम हाथ-मुँह धोओ, कपड़े बदलो। चलो, जाओ जल्दी करो, खाना खाकर तुम्हें कोचिंग भी जाना है।’’
यह सुनकर वह हाथ-मुँह धोने चला गया। निखिल हाथ-मुँह धोकर जब तक आया, तब तक मम्मी ने भोजन परोस दिया था। खाना खाकर वह कोचिंग चला गया। कोचिंग से आने के बाद निखिल अपनी पढ़नेवाली मेज पर बैठकर होमवर्क करने लगा। यह शाम का समय था। अँधेरा अभी नहीं हुआ था। जहाँ निखिल पढ़ रहा था, उसके ठीक सामने की खिड़की घर के छोटे से आँगन में खुलती थी। पक्के फर्श के आँगन के बीचोबीच ‘तुलसीघरा’ था। तुलसी के पौधों के साथ गेंदा, गुलाब और बारामासी के फूलों से लदे पौधे हवा में झूमते ऐसे लग रहे थे मानो निखिल को अपनी ओर बुलाने का इशारा कर रहे हों! तुलसीघरा के चारों ओर अचारवाली लाल मिर्चियाँ सूखने के लिए पड़ी थीं। कुछ ही देर में पूरा आँगन सोनचिरैया, गौरैया और सुआ-सुग्गों के मधुर कलरव से भर गया। तरह-तरह की अलग सी आवाजें! पढ़ना छोड़कर निखिल इस मनोरम दृश्य को देखने में तल्लीन हो गया। कब माँ उसके पास आकर खड़ी हो गईं, उसे पता ही नहीं चला।
स्नेह से सिर पर हाथ फेरते हुए मम्मी ने निखिल के हाथ से कलम लेकर एक ओर रखी। फैली हुई कॉपी-किताबें समेट दीं। फिर निखिल से कहा, ‘‘बस, अब बहुत हुआ पढ़ना। सुबह से पढ़ ही रहे हो। जाओ थोड़ा खेल लो। तुम्हारे दोस्त बहुत पहले से पार्क में खेल रहे हैं।’’
‘‘पर मुझे होमवर्क करना है मम्मी, अभी बहुत काम बाकी है।’’ निखिल ने अनमने स्वर में कहा। उसका खेलने का बिल्कुल मन नहीं था। कल से उसके टेस्ट भी तो हैं। उसकी भी तैयारी करनी है।
किंतु मम्मी ने एक नहीं सुनी, जबरन उसे कुरसी से उठा दिया, वत्सल भाव से बोलीं, ‘‘ज्यादा नहीं, लेकिन थोड़ा-बहुत खेलकूद जरूरी है बेटा। खेल से ही शरीर का अच्छा-खासा व्यायाम हो जाता है। ताजगी आ जाती है, मन प्रसन्न हो जाता है खेलने के बाद!’’
‘‘लेकिन कल से मेरे टेस्ट हैं।’’ निखिल अभी भी बाहर नहीं जाना चाहता था।
पर मम्मी नहीं मानी बोलीं, ‘‘होने दो टेस्ट! घंटा-आधा घंटा खेल लोगे तो कोई हर्ज नहीं होगा। फिर दादी भी तो बैठी हैं तुम्हारे साथ जाने के लिए, उन्हें टहलाने की, पार्क में लेकर जाने की जिम्मेदारी तुम्हारी है बेटा। जब तक पापा टूर से नहीं आ जाते, तुम्हें उन्हें लेकर जाना होगा। अब देर न करो। जाओ। दादी कब से तैयार हुई बेचैन सी हो रही हैं। उनका भी वक्त हो गया है पार्क में जाने का। पार्क जाकर उनका जी बहल जाएगा और तुम भी खेल लोगे।’’
मम्मी की बात मान निखिल दादी को लेकर पार्क की ओर चल पड़ा। यह तो उसे मालूम ही था कि चैतन्य और साक्षर पार्क में क्रिकेट खेल रहे होंगे। इन लोगों ने उससे स्कूल में ही कहा था कि शाम को क्रिकेट खेलेंगे। मगर उस वक्त निखिल ने मना कर दिया था। चलो अच्छा है, अब उन लोगों के साथ खेल भी लूँगा। पार्क पहुँचने पर सचमुच वे लोग क्रिकेट खेलते दिखे। निखिल को वहाँ देख वे लोग खुश हो गए। निखिल उनके साथ मिलकर खेलने लगा। दादी को उसने वृक्षों के नीचे पत्थर की बेंचों में से एक पर बैठा दिया। वहीं उनकी छड़ी भी रख दी। साथ में पानी की बोतल भी। दादी के लिए मम्मी पापा को हमेशा पानी की बोतल देती थीं। आज पापा की जगह वह आया था, सो उसे भी दी थी। दवाइयों की वजह से दादी का मुँह सूखता है, एक घूँट ही सही, लेकिन थोड़ी-थोड़ी देर में वे पानी जरूर पीती थीं।
हैरानी और अविश्वास से ऋषभ निखिल की ओर देखने लगा। उसे अपने कानों पर यकीन नहीं हुआ! मगर सच यही था कि निखिल लंच होते ही उसे टिफिन लेने के लिए अपने पास बुला रहा था। आश्चर्य और अविश्वास से देखते ऋषभ के हाथों में निखिल ने लंचबॉक्स पकड़ा दिया और कहा, ‘‘यह तुम्हारे लिए मम्मी ने दिया है’’ और दूसरा डिब्बा बस्ते से निकालकर लंच करने लगा। फिर तो हर रोज लगातार यही क्रम चलने लगा। एक हफ्ता बीत गया। इस बीच ऋषभ निखिल के पास ही बैठने लगा था। कभी जब निखिल को स्कूल आने में देर हो जाती थी, तब ऋषभ उसके लिए डेस्क पर अपना बस्ता रखकर सीट भी रोक लेता था। एक दिन जब निखिल ने उसे लंचबॉक्स दिया, तो ऋषभ ने अपने बस्ते से खूबसूरत सा डिब्बा निकालकर निखिल को देते हुआ कहा, ‘‘निखिल, मेरी मम्मी ने यह तुम्हारे लिए दिया है। मना मत करना। खाकर देखो, बहुत टेस्टी है। और हाँ, कल से मेरे लिए टिफिन मत लाना। मैं अपना टिफिन लाऊँगा अब।’’
निखिल ने केक खाया। वाकई बहुत अच्छा बना था। ऋषभ ने बताया, ‘‘मम्मी एक छोटी सी बेकरी शॉप चलाती हैं। उनके हाथ का बना फू्रट केक हो या स्ट्राबेरी या कीवी या किसी भी दूसरे फ्लेवर का केक हो, बहुत ही स्वादिष्ट होता है। इसीलिए बहुत प्रसिद्ध है। लोग ऑर्डर पर बनवाते हैं। तुम्हारे जन्मदिन पर मैं तुम्हारी पसंद का केक लेकर आऊँगा।’’ और सचमुच निखिल के जन्मदिन पर ऋषभ और उसकी माँ निखिल के घर आए। अपने साथ लाया हुआ बड़ा सा केक उन्होंने मेज पर रख दिया और धूमधाम से सबने निखिल का जन्मदिन मनाया।
जब वे लोग जाने लगे, तब ऋषभ की माँ ने निखिल की मम्मी से कहा, ‘‘मैं आपको कैसे शुक्रिया कहूँ? यूट्रेस के ऑपरेशन के कारण मैं तो पूरे तीन हफ्ते तक बिस्तर से उठ नहीं पाई। चलना-फिरना तक मना था। ऋषभ की दादी को गठिया और साँस की शिकायत है। जनवरी की इस ठंड में दस बजे के बाद वे किसी तरह उठ पाती थीं। जैसे-तैसे करके जो कुछ बन पाता था, उसी से हमारा काम चलता। बेकरी के बिस्कुट खा-खाकर रिशू तंग हो गया था। अघा गया था। उसे बिस्कुटों से इतनी अरुचि हो गई कि उसने बिस्कुट देखना तक बंद कर दिया। उसका पेट भी खराब हो गया था। दो-दो दिन तक लैट्रिन ही नहीं जा पाता था। आपने ऋषभ के लिए बराबर लंच भेजा, यह बहुत बड़ी बात है। न जान, न पहचान, फिर भी आपने संकट के समय हमारी बहुत मदद की। शायद पिछले जन्म में हम बहनें रही होंगी।’’
निखिल की मम्मी ने हँसकर कहा, ‘‘इस जन्म की बहन नहीं हूँ क्या?’’ इसी तरह के खुशनुमा माहौल में ऋषभ और उसकी माँ ने उनके यहाँ से विदाई ली।
अब निखिल और ऋषभ बहुत अच्छे दोस्त बन गए थे। ऋषभ बहुत बदल गया था। उसने बताया था कि निखिल मुझे पहले, दूसरों की सहायता करने की बजाय उन्हें तंग करने में मजा आता था। लेकिन जब से तुम्हारे संपर्क में आया, तब से सोचने पर मजबूर हो गया। मम्मी की बीमारी ने भी बहुत कुछ सिखा दिया। उस दिन जब मम्मी ने केक का डिब्बा दिया था, तो झल्लाकर उसने मम्मी से कहा था, ‘‘एक तो इतना भारी बस्ता, उस पर इतनी सारी कॉपी-किताब के बीच एक ही डिब्बा नहीं घुस पा रहा है, तो निखिल के लिए दूसरा कैसे ले जाऊँ?’’ तब जानते हो मेरी मम्मी ने क्या कहा था? उन्होंने कहा था—‘‘अगर निखिल भी ऐसा करता, तो हफ्तों तक तुम लंच कैसे कर पाते? जितनी तुम्हारी कॉपी-किताबें हैं, उतनी ही उसकी भी तो होंगी? जब वह तुम्हारे लिए इतना कर सकता है, तो तुम्हारा भी उसके प्रति कुछ फर्ज बनता है। बेटे, उसको भी अपने जैसा समझो, पहले दिल में जगह बनाओ, फिर बस्ते में अपने आप जगह बन जाएगी।’’ मम्मी की बातों ने जैसे मेरा विवेक जगा दिया। मेरी समझ खुल सी गई। पहली बार मुझे लगा कि ‘‘जिस उदार हृदय लड़के ने मेरे लिए इतनी जहमत उठाई है, मुझे भी उसके लिए सोचना चाहिए। कुछ करना चाहिए। मैंने तुरंत बस्ता खोला, उसमें से वे कॉपी-किताबें हटा दीं, जिनका पीरियड नहीं था और इतना करते ही बस्ते में पर्याप्त जगह हो गई।’’
ऋषभ की ये बातें सुनकर निखिल मुसकरा दिया, बोला, ‘‘यार, यही तो मैंने भी किया था। तभी तो आसानी से बैग में दो-दो लंच बॉक्स की जगह बन पाई थी।’’
ऋषभ ने कुछ सोचते हुए धीरे-धीरे कहना शुरू किया—‘‘निखिल, जब मैंने दो दिन जबरन तुम्हारा टिफिन खा लिया था, तो तुमने मुझे कुछ भी नहीं कहा था, तुम्हारे इस व्यवहार ने मेरे मन में हलचल मचा दी थी। तुम चाहते तो मुझे मार-पीट सकते थे, मैम से मेरी शिकायत कर सकते थे, मगर तुमने ऐसा कुछ नहीं किया। मैं जितना इस बारे में सोचता, उतना ही दुःखी होता था। ऐसे में जब तुम मेरे लिए टिफिन लाने लगे, तब तो मुझ पर घड़ों पानी पड़ गया था शर्म और संकोच के मारे। मैंने दादी को सब बताया था, यह भी कि ‘अब से भूखा रह लूँगा, मगर किसी से भोजन नहीं लूँगा,’ आखिर मम्मी और दादी भी तो ऐसे समय, असमय भोजन कर पाती हैं। इस पर दादी ने समझाया था। उन्होंने कहा था—‘‘तुम निखिल को लंच के लिए मना मत करना। वह अत्यंत समझदार, अच्छे और दयालु परिवार का बच्चा है। तुम घर से सुबह ही चले जाते हो। यहाँ तो किसी तरह से, देर से ही सही, हम नाश्ता और खाना बनाकर खा लेते हैं, मगर तुम तो शाम तक घर आ पाते हो, शाम को एक समय ही तुम्हें खाना मिल पाता है। जब तुम्हारी मम्मी ठीक हो जाएँगी तो सबकुछ सँभाल लेगी, तुम्हें भी और तुम्हारे दोस्त को भी।’’
‘‘निखिल, हमारी दादियाँ कितनी समझदार होती हैं!’’ ऋषभ की बात पर निखिल ने सिर हिलाकर सहमति जताई।
दोनों मित्र बातें करते स्कूल के बरामदे में टहल रहे थे। सुनहरा भविष्य बाँहें पसारे इन भावी नागरिकों की सुखद प्रतीक्षा कर रहा था।
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( साहित्य अमृत साभार)