Manish Mishra
मुसीबतें कभी अकेले नहीं आतीं, विश्व की अर्थव्यवस्था के उतार-चढ़ाव और बढ़ती बेरोजगारी के बीच पिछले साल इसी मार्च के महीने की एक शाम भारत के प्रधानमंत्री का उद्बोधन मीडिया के माध्यम से जनता तक पहुंचा कि कोविड के कारण सम्पूर्ण लॉकडाउन सम्पूर्ण देश में एक साथ लागू होगा, कोरोना से भयभीत जनता ने इसे स्वीकार किया, और जान है तो जहान है, में अपनी रोजी-रोटी की परवाह किए बगैर देश में अमन के साथ, इस बीमारी में कंधे से कंधा मिलाकर सहयोग दिया। गैरसरकारी संगठनों, पोलिस, डॉक्टर्स, स्वास्थ्य कार्यकर्ता और न जाने कितने अनजान चेहरों ने ज़िंदगी का दांव खेल औरों के घर के चिराग न बुझने दिये, इन सब के बीच जो हाथ में नहीं था, वह थी निरंतर चलने वाली अर्थ-व्यवस्था का भविष्य| वर्ष 2019 के अंतिम क्वाटर में चीन के वुहान शहर से निकले कोरोना वाइरस(कोविड -19) से 200 से अधिक देश प्रभावित हुये, भारत सहित यूरोप के देशों ने बचाव के लिए प्राथमिक वैक्सीन भी बना ली है, परंतु 100% सुरक्षा प्रदान करने वाली दवा और वैक्सीन की दिशा में अब भी काम जारी है, स्वास्थ्यगत उपचार तो अब भी हो रहा है, और वैक्सीन की खोज भी जल्द कर ली जाएगी, पर देशों में काल और परिस्थिति से प्रभावित हुई इस अर्थव्यवस्था को संभलने में वर्षों लग जायेंगे।
कोविड-19 से प्रभावित इस अर्थ व्यवस्था को द्रुत-विकास की गति देना, सबसे बड़ी चुनौती है, भारतीय परिदृश्य में देखा जाये तो लॉकडाउन और उसकी बढ़ती अवधि ने जनसाधारण को ऐसा प्रभावित किया कि जीवनयापन की व्यवस्थागत श्रृंखला कई स्तर पर टूट गई, वैश्विक मंदी की ओर बढ़ते क़दमों ने रोजगार और रोजगार के अवसर छीन लिए, मार्च 2020 के बाद हुए लॉकडाउन से नित नए परिवर्तन दिखाई दिए। शुरू के दौर में उच्च-मध्यम वर्ग ने अपने घरों में काम करने वालों भरसक आर्थिक और खाद्य से मदद की, ऐसे ही निजी उद्यमों ने भी इस दौर में कामगारों की पगार देने के प्रयत्न किये, पर कोविड और लॉक-डाउन बढ़ते ही जमा पूंजी भी ख़त्म होने लगी। बड़े, मंझोले और छोटे सभी उद्योग इससे अछूते नहीं रहे, आय-व्यय का लेखा-जोखा ऐसा बिगड़ा कि संस्थानों के पास तनख्वाहें बाँटने की समस्या मुंह बाये खड़ी होने लगी, मीडिया के मुताबिक भारत में ही लगभग 14 लाख से अधिक लोगों की नौकरियां इस काल-खंड में चली गई हैं, न जाने कितने कर्मियों के वेतन में कटौतियाँ हो गईं। लॉक-डाउन के कारण कुशल, अर्धकुशल और अकुशल कामगारों को आर्थिक तंगी का सामना करना पड़ा है, कोरोना के भय से जो “रिवर्स मायग्रेशन” हुआ, उसमें वे अपने गृहग्रामों में पहुँचने के बाद बेरोज़गारी की कगार पर खड़े दिख रहे हैं।
गृह राज्य सरकारों ने यथासंभव प्रयास किया कि इस कठिन दौर में लौट रहे कामगारों के जीवनयापन के प्रबंध हों, पर यह सामान्य बात है, कि कुशल और अर्ध कुशल कामगारों का काम वहीं संभव है, जहां उत्पादों के निर्माण के लिए जलवायु, रा-मटेरियल की उपलब्धता और कल-कारखाने हों, अर्थात कुशल कामगारों को उन स्थानों पर जाना ही होगा, जहां उनके हुनर से सम्बंधित बाजार में रोजगार हो, सवाल यह है कि हम इस न्यू नॉर्मल के साथ फिर प्रगति के सौपान कैसे ढूंढें, ऐसे कौन से प्रबंध किए जाएं कि अर्थव्यवस्था पहले के मुकाबले तेजी से उभरे, और, पुरुष कामगारों के मुकाबले आज भी युवा और महिलाओं का वर्ग ऐसा है, जिनके पास वयस्क-अधेड़ पुरुष कामगारों से कम काम है, इस अंतर को कम करने स्वरोज़गार एक बेहतर क्षेत्र है, जिससे महिलाओं और युवाओं की बेरोजगारी के अंतर को कम किया जा सकता है, और महिला शक्ति का भी उपयोग हो सके, इसके लिए ग्रामीण स्तर से लेकर सभी राज्यों, प्रत्येक शहर, क़स्बों में महिलाओं, बालिकाओं के लिए उन स्किल डिवेलपमेन्ट सेंटर बढ़ाये जाने की दरकार है, जिसकी माँग और निर्यात सरलता से उपलब्ध हो, उन्हें छपाई, सिलाई, घरेलू खाद्य पदार्थ बनाना, लिफाफे बनाना, बुनाई, बांस से कलाकृतियां बनाना, चॉक बनाने जैसे सैकड़ों काम सिखाये जाएं ताकि महिलाओं की भागीदारी का प्रतिशत, देश की अर्थव्यवस्था में बढ़ सके, खिलौनों और दवाइयों की पूर्ति के लिए भारत बहुत बड़ा बाजार है, 70% से अधिक इन पर चाइना मार्केट का क़ब्ज़ा है, अगर इन दो क्षेत्रों में ही उत्पादों की समझ से आत्मनिर्भरता प्राप्त कर ले तो इन उत्पादों की स्वदेशी पूर्ति और आयात में कमीं आएगी, व निर्यात से अर्थव्यवस्था को मज़बूती मिलेगी। अनुमानतः लगभग एक तिहाई आर्थिक भार इससे सम्हाला जा सकता है, ऐसे ही अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने कई स्तरों पर काम करना होगा, प्रश्न बहुत हैं, अनुत्तरित भी, उन विकल्पों को चुनना होगा, जहाँ से प्रगति के प्रभावी रास्ते खुल सकें, ऐसा नहीं है, कि केवल भारत में रोजगार और व्यवसाय के अवसर कोविड के कारण कम हुए, हैं, अपितु पूरे विश्व में बेरोजगारी बढ़ी है, बेरोजगारी और नौकरियाँ जाने में महिलाओं का अनुपात हमेशा से अधिक रहा है, ऐसा नहीं है, कि कोविड के दौर में महिलाओं ने अपने रोजगार मे परिवर्तन नहीं किए, बुटीक से ऑनलाइन बूकिंग की ओर मार्केट ने खुद को बदला है, ऐसे ही कई महिलाओं ने ऑनलाइन कपड़ों को व्यापार का रूप दिया, और इसने बाजार मे अपनी जगह बना ली, पर इस दिशा मे अब भी बहुत काम होना शेष है।
गृह राज्य सरकारों ने यथासंभव प्रयास किया कि इस कठिन दौर में लौट रहे कामगारों के जीवनयापन के प्रबंध हों, पर यह सामान्य बात है, कि कुशल और अर्ध कुशल कामगारों का काम वहीं संभव है, जहां उत्पादों के निर्माण के लिए जलवायु, रा-मटेरियल की उपलब्धता और कल-कारखाने हों, अर्थात कुशल कामगारों को उन स्थानों पर जाना ही होगा, जहां उनके हुनर से सम्बंधित बाजार में रोजगार हो, सवाल यह है कि हम इस न्यू नॉर्मल के साथ फिर प्रगति के सौपान कैसे ढूंढें, ऐसे कौन से प्रबंध किए जाएं कि अर्थव्यवस्था पहले के मुकाबले तेजी से उभरे, और, पुरुष कामगारों के मुकाबले आज भी युवा और महिलाओं का वर्ग ऐसा है, जिनके पास वयस्क-अधेड़ पुरुष कामगारों से कम काम है, इस अंतर को कम करने स्वरोज़गार एक बेहतर क्षेत्र है, जिससे महिलाओं और युवाओं की बेरोजगारी के अंतर को कम किया जा सकता है, और महिला शक्ति का भी उपयोग हो सके, इसके लिए ग्रामीण स्तर से लेकर सभी राज्यों, प्रत्येक शहर, क़स्बों में महिलाओं, बालिकाओं के लिए उन स्किल डिवेलपमेन्ट सेंटर बढ़ाये जाने की दरकार है, जिसकी माँग और निर्यात सरलता से उपलब्ध हो, उन्हें छपाई, सिलाई, घरेलू खाद्य पदार्थ बनाना, लिफाफे बनाना, बुनाई, बांस से कलाकृतियां बनाना, चॉक बनाने जैसे सैकड़ों काम सिखाये जाएं ताकि महिलाओं की भागीदारी का प्रतिशत, देश की अर्थव्यवस्था में बढ़ सके, खिलौनों और दवाइयों की पूर्ति के लिए भारत बहुत बड़ा बाजार है, 70% से अधिक इन पर चाइना मार्केट का क़ब्ज़ा है, अगर इन दो क्षेत्रों में ही उत्पादों की समझ से आत्मनिर्भरता प्राप्त कर ले तो इन उत्पादों की स्वदेशी पूर्ति और आयात में कमीं आएगी, व निर्यात से अर्थव्यवस्था को मज़बूती मिलेगी। अनुमानतः लगभग एक तिहाई आर्थिक भार इससे सम्हाला जा सकता है, ऐसे ही अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने कई स्तरों पर काम करना होगा, प्रश्न बहुत हैं, अनुत्तरित भी, उन विकल्पों को चुनना होगा, जहाँ से प्रगति के प्रभावी रास्ते खुल सकें, ऐसा नहीं है, कि केवल भारत में रोजगार और व्यवसाय के अवसर कोविड के कारण कम हुए, हैं, अपितु पूरे विश्व में बेरोजगारी बढ़ी है, बेरोजगारी और नौकरियाँ जाने में महिलाओं का अनुपात हमेशा से अधिक रहा है, ऐसा नहीं है, कि कोविड के दौर में महिलाओं ने अपने रोजगार मे परिवर्तन नहीं किए, बुटीक से ऑनलाइन बूकिंग की ओर मार्केट ने खुद को बदला है, ऐसे ही कई महिलाओं ने ऑनलाइन कपड़ों को व्यापार का रूप दिया, और इसने बाजार मे अपनी जगह बना ली, पर इस दिशा मे अब भी बहुत काम होना शेष है।
(लेखक छत्तीसगढ़ मानव अधिकार आयोग, रायपुर के संयुक्त संचालक हैं)