रायपुर, इंदिरा गाँधी कृषि विश्वविद्यालय द्वारा पुरानी स्थानीय किस्मों में चयन के द्वारा नयी सुगंधित पोहा की किस्म को विकसित किया गया है। कुलपति डॉ एस. के. पाटिल द्वारा कृषक किस्मों/स्थानीय किस्मों में चयन कर उनकी विशेष गुणवत्ता को बरकरार रखते हुए उनके अवांछनीय गुणों मे सुधार करना ही मुख्य उद्देश्य रहा है। इसी के तहत जशपुर/रायगढ़ की स्थानीय किस्म “बरहासाल” जो कि एक विशेष प्रकार की मोटे दाने में सुगंधित प्रकार की किस्म है, जिसकी उपज क्षमता कम होने से कृषकों द्वारा धीरे-धीरे इसे लगाना बंद कर दिया जा रहा हैं एवं यह लगभग विलुप्त के कगार पर है, जबकि मोटे प्रकार के दाने में यह अदभुत प्रकार की सुगंधित किस्म हैं। ऐसी अभी बहुत सी देशी किस्मे हैं, जिसमें भविष्य में बदलते मौसम से लड़ने की क्षमता जैसेः सूखे मे सहनशील एवं अधिक जल भराव क्षेत्र में भी उपज देने मे सक्षम हैं। पनगुड़ी एवं गोइन्दी देशी किस्में तो संकर धान की किस्मो को भी टक्कर दे रही है, जिसमें 300 से अधिक दानो की संख्या प्रति बाली पायी गयी हैं। दधमैनी और दिगम्बर धान सूखे के लिए सहनशील है। मध्यम बौनी भाटा माहसुरी मधुमेह रोगियो के लिए बहुत ही उपयुक्त जो कि सूगर फ्री हैं। कपरी कृषक प्रजाति में बासमती जैसे गुण मौजूद है, जिसका पकाने के बाद लंबाई अनुपात दुगना हो जाता हैं। बी.डी. सफरी बौने प्रकार की सफरी जैसी ही किस्म हैं। डॉ पाटिल के सुझाव पर स्थानीय बरहासाल किस्म में डॉ दीपक शर्मा प्रमुख वैज्ञानिक एवं नोडल आफिसर पी.पी. व्ही. एवं एफ. आर. ए. द्वारा चयन प्रक्रिया द्वारा अच्छे उपज एवं पोहा के लिए उपयुक्त किस्म विकसित की गयी हैं। इस किस्म की उपज अच्छे प्रबंधन द्वारा 45 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक प्राप्त होती है। दाने का रंग हल्का लाल होने से पोहे को रंग भी हल्का लालिमा लिये हुए होता है। पोहा अत्यधिक सुगंधित एवं खाने मे स्वादिष्ट होता हैं। इसका चिवड़ा भी बहुत स्वादिस्ट होता है। प्रारम्भिक जाँच में इस किस्म के दाने तथा पोहे में भी सुक्ष्म पोषक तत्व जैसे कि जिंक एवं आयरन की ज्यादा मात्रा पायी गयी है।