Home साहित्य पढ़ें, मैथिलीशरण गुप्त की रचना ‘जयद्रथ-वध’ के प्रथम सर्ग का पहला भाग

पढ़ें, मैथिलीशरण गुप्त की रचना ‘जयद्रथ-वध’ के प्रथम सर्ग का पहला भाग

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हिंदी साहित्य के इतिहास में खड़ी बोली के अहम कवि, मैथिलीशरण गुप्त का जन्म 3 अगस्त, 1886 को हुआ था. जानकारी के लिए बता दें कि महात्मा गांधी ने उन्हें ‘राष्ट्र कवि’ की उपाधि दी थी. हिंदी साहित्य में उनका स्थान उनकी रचना और भाषा के कारण सर्वोच्च है. गौरतलब है कि उन्होंने महाकाव्य साकेत, यशोधरा, भारत-भारती, पंचवटी, द्वापर, सिद्धराज, अंजलि और अर्घ्य, अर्जन और विसर्जन, काबा और कर्बला, किसान, कुणाल गीत, गुरु तेग बहादुर, विष्णुप्रिया, उर्मिला और खण्डकाव्य जयद्रथ वध आदि लिखे हैं. आइए, पढ़ते हैं उन्हीं की रचना जयद्रथ-वध (Jayadrath Vadh) के प्रथम सर्ग का पहला भाग

जयद्रथ-वध, प्रथम सर्ग (भाग-1)

वाचक! प्रथम सर्वत्र ही ‘जय जानकी जीवन’ कहो,
फिर पूर्वजों के शील की शिक्षा तरंगों में बहो।
दुख, शोक, जब जो आ पड़े, सो धैर्य पूर्वक सब सहो,
होगी सफलता क्यों नहीं कर्त्तव्य पथ पर दृढ़ रहो।।
अधिकार खो कर बैठ रहना, यह महा दुष्कर्म है;
न्यायार्थ अपने बन्धु को भी दण्ड देना धर्म है।
इस तत्व पर ही कौरवों से पाण्डवों का रण हुआ,
जो भव्य भारतवर्ष के कल्पान्त का कारण हुआ।।
सब लोग हिलमिल कर चलो, पारस्परिक ईर्ष्या तजो,
भारत न दुर्दिन देखता, मचता महाभारत न जो।।
हो स्वप्नतुल्य सदैव को सब शौर्य्य सहसा खो गया,
हा! हा! इसी समराग्नि में सर्वस्व स्वाहा हो गया।
दुर्वृत्त दुर्योधन न जो शठता-सहित हठ ठानता,
जो प्रेम-पूर्वक पाण्डवों की मान्यता को मानता,
तो डूबता भारत न यों रण-रक्त-पारावार में,
‘ले डूबता है एक पापी नाव को मझधार में।’
हा ! बन्धुओं के ही करों से बन्धु-गण मारे गए !
हा ! तात से सुत, शिष्य से गुरु स-हठ संहारे गए।
इच्छा-रहित भी वीर पाण्डव रत हुए रण में अहो।
कर्त्तव्य के वश विज्ञ जन क्या-क्या नहीं करते कहो?
वह अति अपूर्व कथा हमारे ध्यान देने योग्य है,
जिस विषय में सम्बन्ध हो वह जान लेने योग्य है।
अतएव कुछ आभास इसका है दिया जाता यहाँ,
अनुमान थोड़े से बहुत का है किया जाता यहाँ।।
रणधीर द्रोणाचार्य-कृत दुर्भेद्य चक्रव्यूह को,
शस्त्रास्त्र, सज्जित, ग्रथित, विस्तृत, शूरवीर समूह को,
जब एक अर्जुन के बिना पांडव न भेद कर सके,
तब बहुत ही व्याकुल हुए, सब यत्न कर करके थके।।
यों देख कर चिन्तित उन्हें धर ध्यान समरोत्कर्ष का,
प्रस्तुत हुआ अभिमन्यु रण को शूर षोडश वर्ष का।
वह वीर चक्रव्यूह-भेदने में सहज सज्ञान था,
निज जनक अर्जुन-तुल्य ही बलवान था, गुणवान था।।
‘‘हे तात् ! तजिए सोच को है काम क्या क्लेश का?
मैं द्वार उद्घाटित करूँगा व्यूह-बीच प्रवेश का।।’’
यों पाण्डवों से कह, समर को वीर वह सज्जित हुआ,
छवि देख उसकी उस समय सुरराज भी लज्जित हुआ।।

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