डॉ. धीरेंद्र वर्मा ने 1933 में हिंदी भाषा का इतिहास लिखा और 1954 में ब्रजभाषा का व्याकरण लिखा. हिंदी भाषा के इतिहास में वे लिखते हैं कि “प्राचीन हिंदी साहित्य की दृष्टि से ब्रज की बोली की गिनती साहित्यिक भाषाओं में होने लगी. इसलिए आदरार्थ यह ब्रजभाषा कहकर पुकारी जाने लगी. विशुद्ध रूप से यह उप-भाषा जो पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मथुरा आगरा, अलीगढ़ आदि तथा मध्य प्रदेश के ग्वालियर और राजस्थान में भरतपुर से लेकर जयपुर तक बोली-समझी जाती है.”
हिंदी के पाणिनि माने जाने वाले आचार्य किशोरीदास बाजपेई ब्रजभाषा का व्याकरण में हिंदी और ब्रजभाषा की उत्पत्ति बताते हुए लिखते हैं, “साधारण बोलचाल की भाषा की अपेक्षा साहित्य की भाषा कुछ विशिष्ट हो जाती है, क्योंकि उसमें कुछ बनाव-सिंगार भी आ जाता है. कुछ सावधानी भी इसके प्रयोग में रखी जाती है. साधारण जनता बोलचाल में ऐसी बारीकी पर नहीं जाती, अपना काम निकालती है.
भाषा के ये दो रूप आप चाहें जहां देख सकते हैं. हिंदी, अंग्रेजी, मराठी आदि सभी भाषाओं का प्राकृत तथा साहित्यिक रूप अलग-अलग दिखाई देगा. भाषा का यह प्राकृत रूप एक कुदरती जंगल के समान है और साहित्यिक रूप बनाई-संवारी सुंदर वाटिका के समान.’
इसी तरह कोई प्राकृत या जनभाषा साहित्य में आकर एक नया तथा आकर्षक रूप धारण कर लेती है. फलतः उस आदि भाषा के दो रूप हो गए. जो प्राकृत रूप था, जिसे सब लोग बोलते थे, उसे प्राकृत कहने लगे. और जो भाषा पढ़े-लिखे लोगों की थी, जिसमें वेदादि की रचना होती थी, उसे संस्कृत नाम मिला. क्योंकि उसका संस्कार हो चुका था. वह सुसंस्कृत विद्वानों की साहित्यिक भाषा थी. उस प्राकृत भाषा का विकास होता गया. उससे दूसरे नंबर की प्राकृत हुई. इस दूसरी प्राकृत से अपभ्रंश भाषाएं बनीं और अपभ्रंशों से ब्रजभाषा, हिंदी, बंगला, गुजराती, मराठी आदि भाषाएं बनीं. वे अपभ्रंश भाषाएं हिंदी आदि के रूप में बदल गईं. इस तरह संस्कृत से नहीं बल्कि प्राकृत से हिंदी की उत्पत्ति हुई. हिंदी की बोलियों में केवल तीन को विशेष रूप से साहित्यिक रूप मिला और उनके नाम हैं ब्रजभाषा, अवधी तथा मेरठी जो राष्ट्रभाषा रूप से गृहीत है. मेरठी ही खड़ीबोली है.
ब्रजभाषा का साहित्य
हिंदी की जितनी भी बोलियां हैं, सबसे बढ़कर ब्रजभाषा का साहित्य है और सबसे ज्यादा. हिंदी की अन्यान्य बोलियों को छोड़कर क्यों ब्रजभाषा ही उस युग में साहित्य की भाषा बनाई गई, इसके कारण हैं. हमारे पुराने साहित्य के प्रायः सभी महारथी वैष्णव थे, जिनकी श्रद्धा ब्रज पर और ब्रजभाषा पर सबसे ज्यादा थी. परंतु इससे भी बढ़ कर इस भाषा की मधुरता और स्पष्टता थी, जिसने साहित्यिकों का मन चुरा लिया. इसीलिए गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी अपनी बहुत सी रचना इस मीठी भाषा में की.
थोड़े में बहुत कह देने की अनुपम शक्ति जो इस ब्रजभाषा में है, वह संस्कृत को छोड़कर और किसी भी भाषा में नहीं है. यह इसकी स्वाभाविक शक्ति है. दूसरी बात यह है कि ब्रजभाषा स्वभावतः इतनी मधुर है, जितनी संसार की कोई भी दूसरी भाषा नहीं, संस्कृत भी नहीं. ब्रजभाषा के इन गुणों पर मुग्ध होकर जनता ने इसे अपनाया, साहित्य की भाषा बनाया. ब्रजभाषा में जैसी साहित्य की सृष्टि हुई है, वैसी अभी तक संस्कृत को छोड़कर अन्य किसी भारतीय भाषा में उपलब्ध नहीं है.”
ब्रजभाषा के लक्षण
ब्रजभाषा व्याकरण में ब्रजभाषा के लक्षण तथा निकटवर्ती भाषाओं से तुलना करते हुए डॉ. धीरेंद्र वर्मा लिखते हैं, “हिंदी भाषा के अंतर्गत बिहारी तथा राजस्थानी बोलियों के अतिरिक्त आठ बोलियां मुख्य हैं. तीन पूर्वी बोलियों के दो समूह हैं –अवधी, वघेली और छत्तीसगढ़ी. पांच पश्चिमी बोलियों के भी दो समूह हैं – खड़ीबोली, बांगरू और ब्रजभाषा, कनौजी, बुंदेली.