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छत्तीसगढ़ के सियासतदानों को क्यों बेचैन कर रहा बस्तर?

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 छत्तीसगढ़ में सत्ता का रास्ता बस्तर से होकर ही गुजरता है और बस्तर फतह करने वाले के सिर ही जीत का सेहरा सजता है. पिछले कुछ चुनावों के परिणामों पर नजर डालें, तो आपको यह बात सही साबित होती दिखेगी. संभवतः यही वजह है कि इन दिनों छत्तीसगढ़ के सियासी गलियारों में बस्तर-दौरे की धमक खूब सुनाई दे रही है. आए दिन सत्तारूढ़ कांग्रेस और प्रदेश की प्रमुख विपक्षी पार्टी बीजेपी के नेता बस्तर का दौरा कर रहे हैं. अपने-अपने दलों की जमीन मजबूत करने की यह कवायद चर्चा का विषय बनी हुई है.

छत्तीसगढ़ में विधानसभा के चुनाव के लिए अभी काफी वक्त बचा हुआ है, लेकिन सियासतदानों को बस्तर ने बेचैन कर रखा है. एक तरफ जहां बीजेपी नए सिरे से बस्तर में अपनी जमीन तलाशने में लगी है, तो वहीं कांग्रेस नेता अपनी पकड़ और मजबूत बनाने के लिए यहां डेरा डाले हुए हैं. इस अभियान के पीछे निश्चित रूप से बस्तर इलाके की विधानसभा सीटों पर वर्चस्व बनाए रखने की जंग है, लिहाजा दोनों ही पार्टी के बड़े नेताओं का लगातार बस्तर दौरा चल रहा है. यही वजह है कि सियासी जानकार दोनों दलों के नेताओं की इस बेचैनी पर नजरें टिकाए हुए हैं.

BJP की नजर बस्तर की 12 सीटों पर
बस्तर के रास्ते सत्ता पाने की बात पिछले चुनाव में सही साबित हुई. साल 2018 के चुनाव में कांग्रेस ने बस्तर की 12 सीटों में से 11 पर जीत हासिल की थी, लेकिन दंतेवाड़ा बीजेपी के पास रहा. हालांकि यहां के विधायक भीमा मंडावी की हत्या के बाद हुए उपचुनाव में बीजेपी की यह एकमात्र सीट भी कांग्रेस ने छीन ली. यह गौरतलब है कि प्रदेश की सियासत में बस्तर की 12 सीटें काफी मायने रखती हैं. अब जबकि ये सभी सीटें कांग्रेस के पास हैं तो फिलहाल बीजेपी के पास कुछ खोने के लिए बचा ही नहीं है. ऐसे में बीजेपी पुरानी गलतियां दोहराना नहीं चाहती और यही वजह है कि पार्टी के नेता लगातार बस्तर दौरा कर कार्यकर्ताओं और जनता से मुलाकात कर रहे हैं. साथ ही बूथ स्तर के कार्यकर्ताओं को भी अभी से रिचार्ज किया जा रहा है.

कांग्रेस भी जमीन बचाए रखने को बेचैन
बस्तर पर बेचैनी केवल बीजेपी को ही नहीं, बल्कि कांग्रेस को भी है. पीसीसी अध्यक्ष मोहन मरकाम का विधानसभा क्षेत्र कोंडागांव बस्तर संभाग में ही है. इन दिनों मरकाम अपना ज्यादातर वक्त पूरे बस्तर संभाग का दौरा करने में बीता रहे हैं. वहीं मुख्यमंत्री भूपेश बघेल भी आने वाले दिनों में प्रदेश के सभी जिलों में जाने वाले हैं, बस्तर संभाग का दौरा भी सीएम की लिस्ट में शामिल है. इस दौरान सरकार के काम-काज को लोगों तक पहुंचाने की मंशा तो रहेगी ही, साथ ही सियासी समीकरण भी साधे जाएंगे. बीजेपी नेताओं के बढ़ते दौरों की वजह से ही बस्तर का इलाका कांग्रेस की प्राथमिकता में आ गया है.

पिछले चुनावों के नतीजों पर एक नजर
2003 में विधानसभा चुनाव के लिए हुए पहले चुनाव में जहां 12 में से 9 विधानसभा सीटें बीजेपी को मिलीं, वहीं कांग्रेस को सिर्फ 3 सीटों से ही संतोष करना पड़ा था. साल 2008 के चुनाव में 12 में से 11 सीटें बीजेपी ने जीतीं, जबकि कांग्रेस के हिस्से में 1 सीट आई. साल 2013 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस 8 और बीजेपी को महज 4 सीटों से संतोष करना पड़ा. साल 2018 के चुनाव में कांग्रेस ने इस इलाके की 11 सीटें जीत लीं, जबकि बीजेपी सिर्फ 1 सीट पर सिमटकर रह गई. दंतेवाड़ा विधायक भीमा मंडावी की हत्या के बाद उपचुनाव हुए, तो यह सीट भी कांग्रेस की ओर से देवती कर्मा ने छीन ली. 2019 के उपचुनाव में देवती कर्मा ने बीजेपी के दिवंगत विधायक भीमा मंडावी की पत्नी ओजस्वी मंडावी को हरा दिया.

बस्तर दौरे पर अपनी-अपनी दलीलें
बस्तर इलाके के दौरे को लेकर बीजेपी और कांग्रेस नेताओं की अलग-अलग दलील है. इस बारे में बीजेपी के दिग्गज और विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष धरमलाल कौशिक का कहना है कि सिर्फ चुनावों के समय क्षेत्र का दौरा करे, बीजेपी ऐसी पार्टी नहीं है. पूरे प्रदेश में लोगों के सुख-दुख का हाल जानने के लिए पार्टी के पदाधिकारी दौरा कर रहे हैं. इसलिए ही बस्तर क्षेत्र का दौरा किया जा रहा है, जो आने वाले समय में और बढ़ेगा. वहीं इसके जवाब में प्रदेश कांग्रेस के संचार विभाग के प्रमुख शैलेष नितिन त्रिवेदी का कहना है कि बीजेपी के 15 साल बस्तर के लिए भयावह साबित हुए हैं. अब आगामी 100 सालों तक भी बीजेपी यहां नहीं आ सकती.

जोर-आजमाइश पर सबकी नजर
बहरहाल, राज्य गठन से पहले बस्तर को कांग्रेस का मजबूत गढ़ माना जाता था, लेकिन छत्तीसगढ़ निर्माण के बाद के चुनावी आंकड़े बताते हैं कि बस्तर के मतदाताओं ने कभी एक दल पर ही निष्ठा नहीं जताई. समय-समय पर विधानसभा सीटों के बदलते परिणाम इसका उदाहरण हैं. लेकिन इस वक्त प्रदेश की ज्यादातर आदिवासी सीटें कांग्रेस के कब्जे में है, ऐसे में बस्तर में पकड़ मजबूत कर इसे फतह करना बीजेपी के लिए बड़ी चुनौती साबित हो सकती है. वहीं, कांग्रेस भी इलाके में मेहनत से बनाई गई पकड़ को खोना नहीं चाहेगी. ऐसे में दोनों दलों की ये जोर-आजमाइश क्या रंग लाएगी, यह देखना रोचक होगा.

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