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बदलाव

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आ तो गया है बदलाव मित्रों,

अब स्त्रियाँ भी कंधा मिलाती हैं।

सड़क तक ही नहीं पहुँच उसकी,

हवा में भी उड़ दिखलाती है।

〰〰

किस बदलाव की चाह कर रहे,

नारी भी अब मुस्काती है।

〰〰

छली नहीं जाती हर डग,

अब नयन नीर न बहाती है।

रोज़ तड़के-तड़के उठती,

काट सब्ज़ी,आटा लगाती है।

पति बच्चों का टिफिन बनाकर,

सज-धज तैयार हो जाती है।

किस बदलाव की चाह कर रहे,

नारी भी अब मुस्काती है।

झटपट सामान भर बैग में,

ऑफिस, स्कूल निकल जाती है।

शाम ढलते चूर होकर…..

घर पर जब वह आती है…

गिलास भर पानी नहीं मिलता,

प्रेम से न कोई बतियाता है।

परवाह न कर तनिक इसकी,

फिर काम पर जुट जाती है।

किस बदलाव की चाह कर,

नारी भी अब मुस्काती है।

दो पैसे कमा अब वह भी,

परिवार का बोझ उठाती है।

नाम न उसके कोई संपत्ति,

फिर भी कर्तव्य निभाती है।

गहना, सोना न पास उसके,

चाँद सी सुंदर कहलाती है।

किस बदलाव की चाह कर रहे,

नारी भी अब मुस्काती है।

सावित्री नहीं रही अब वह,

दुर्गा,चंडी ही कहलाती है।

न सीता सी पतिव्रता अब,

लक्ष्मी रूप में ही पूजी जाती है।

करती जब खुद को समर्पित,

तभी नारी कहाती है…..

किस बदलाव की चाह कर रहे,

नारी भी अब मुस्काती है।

समय न देती अपने छौनों को,

पालनाघर छोड़ आती है।

कभी-कभी परिवार की खातिर

सब सह कृत्रिम हर्षाती है।

ममता,करुणा,त्याग की प्रतिमूर्ति,

अपनों से ही छली जाती है।

किस बदलाव की चाह कर रहे,

नारी भी अब मुस्काती है।

समाज के ठेकेदारों से,

आज एक प्रश्न लेखनी करती है….

लेखनी भी नारी ही है,

शायद इसलिए ज़ुर्रत करती है….

खुद से खुद को छलती नारी,

क्यों तुम्हें नज़र नहीं आती है….

उसके मन की पीर असह्य,

तुम्हें क्यों नहीं रुलाती है….

हिस्सा है वह भी परिवार का,

फिर मशीन क्यों बन जाती है ?

~~~~

जब तक प्राण होते तन में

तब तक……. (निःशब्द हूँ मैं…..)

किस बदलाव की चाह कर रहे…

नारी भी अब मुस्काती है।

???

(छौनों=बच्चों)

(मध्यम वर्गीय परिवार की कामकाजी महिलाओं पर लिखी कविता…)

लेखिका : भावना तायवाडे

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