गुरूदत्त साहब एक अभिनेता, निर्देशक, प्रोड्यूसर, क्लासिक डांसर, कोरियोग्राफर और न जाने कितने सारे और गुणों के धनी थे, जिन्होंने अपने फिल्मों के माध्यम से समाज को सभ्य बनाने के लिए इंसानियत, सच्चाई, महिला सशक्तिकरण, सामाजिक न्याय, प्रेम के नैसर्गिक न्याय, समाज के शोषक वर्गों के प्रति आक्रोश प्रदर्शित किया है, वहीं जनसामान्य के लिए अच्छा गीत संगीत का निर्माण भी किया। गुरूदत्त साहब की फिल्मों में मानवीय मूल्यों, प्रेम की जो उत्कृष्ट शैली देखने को मिलती है, वह उनको हिन्दी सिनेमा का सम्राट बनाती है। फिल्मों के माध्यम से गुरूदत्त साहब उन सद्गुणों को वापस उनकी जगह दिलाना चाहते थे, जो महापुरूषों, संत-महात्माओं का भी उद्देश्य होता है। गुरूदत्त साहब की फिल्में जो भी हो, चाहे उस फिल्म में वो अभिनेता हो, प्रोडयूसर हो या निर्देशक हों। उनकी हर फिल्म समाज में व्याप्त अच्छाई-बुराई के द्वन्द को उजागर करते हुए इंसानियत के पक्षधर होती थी। उन्होंने प्रेम के कई पहलुओं को इतने अच्छे से फिल्मांकन किया कि वह आज भी श्रेष्ठ है। गुरूदत्त साहब जिसने फिल्मों में आधुनिकीकरण को प्रोत्साहन दिया। वे अपने काम के प्रति इतनी संजीदा पेश आते हैं, जैसे कि कोई रचनाकार अपने उत्कृष्ट रचना को दुनिया के सामने रखना चाहता हो, वो अपने कला के माध्यम से दिखाना चाहते हैं कि विश्व स्तर की सिनेमा भारत में भी है। फिल्मों के माध्यम से लोगों को ये संदेश देना चाहते हैं कि चाहे वो निजी जिंदगी हो या व्यावसायिक सभी में किस प्रकार के लोग आपके इर्द-गिर्द फैले हैं। महिला सशक्तिकरण (बहूरानी), साहित्य के युवा कलाकारों का सफलता के पूर्व संघर्ष का यात्रा (प्यासा), फिल्मी दुनिया में सफलता के लिए फिल्मों का समाज में क्या प्रभाव पड़ेगा को दरकिनार करते हुए सिर्फ अपनी कमाई पर नजर रखने वाले फिल्मी व्यवसायियों (कागज के फूल) और एक रचनाकार का समाज के प्रति जवाबदारी को दर्शाता है। गुरूदत्त साहब की फिल्में उन बारीकियों से गुजरकर तैयार होती थी, जैसे कोई माला तैयार करने वाला अनावश्यक डाल-पात को छांटता है। फिल्मों के डॉयलाग, लोगों का बात करने का सलीका, तहजीब सिखाती है, वहीं फिल्मों का गीत-संगीत जनसामान्य के दिल को छूने वाली होती थी। उनके फिल्म में गीतों की श्रृंखला को देंखे तो उनका एक-एक गीत आज भी उतने ही ऊंचे मुकाम पर है। उनके गानों में शब्दों का सोना है, जो कभी नष्ट नहीं होगा और उस सोने के जौहरी कल भी थे, आज भी हैं और कल भी रहेंगे। यह एक कला है, जिसे जितने अच्छे से उन्होंने पहचान दिलाई वो अपने आप में सर्वश्रेष्ठ है, वो गीत जो आज भी कहीं सुनाई दे तो चलते हुए को रूकने के लिए मजबूर कर दे। उन श्रेष्ठ गीतों में – कभी आर-कभी पार लागा तीरे-नजर, बाबूजी धीरे चलना, तदबीर से बिगड़ी हुई तकदीर बना ले, ये लो जी मैं हारी पिया, हम आपकी आंखों में इस दिल को बसा दे तो, भौंरा बड़ा नादान है, सर जो तेरा चकराये आदि। वहीं कुछ गीत जो एकांतभाव और प्रेम विरह से सरोबर है वो भी उतने ही प्रिय आज भी हैं- वक्त ने किया क्या हसीं सितम तुम रहें न तुम हम रहें न हम, जा-जा बेवफा कैसा प्यार कैसी प्रीत रे, देखी जमाने की यारी, बिछड़े सभी बारी-बारी। उनके कई गाने हिन्दी सिनेमा में उनकी पहचान से जाने जाते हैं। वे गीत हैं ‘जिन्हें नाज है हिन्द पर वो कहां है’ ‘ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है, जाने वो कैसे लोग थे जिनके प्यार को प्यार मिला। गुरूदत्त साहब की फिल्म ‘आर-पार’ में कैसे लोग एक इंसान को बिना सोचे-समझे सच्चाई जाने बगैर अभिनेता को सजायाफ्ता का तमगा दिलाती है वहीं दूसरी ओर अभिनेता अपने प्रेमिका को सजायाफ्ता होने के कारण को स्पष्ट करता है और बड़ी ही साफगोई से जिंदगी के फैसले लेने के लिए अवसर देता है कि- एक तरफ तुम्हारा प्रेम और दूसरी तरफ तुम्हारा पिताजी का अरमान। फिल्म ‘सांझ और सवेरा’ पारिवारिक फिल्म थी, जिसमें सामाजिक लाज के लिए दूसरे की जिंदगी दांव पर लगा दी जाती है, लेकिन सच जानने के बाद एक सुखद रूप ले लेता है। वहीं फिल्म ‘बहुरानी’ में आदर्श जमींदार के रूप में थे। भाई-भाई के बीच अनबन की दीवार को सादगी और प्रेम से कैसे जीता जाता है और महिला चाहे तो अपने परिश्रम से अपने भविष्य का निर्माण कर सकती हैं, इस फिल्म का उद्देश्य था। गुरूदत्त साहब की श्रेष्ठ फिल्में जिनकी पहचान हिन्दी सिनेमा को विश्व स्तर पर पहुंचाता है वह है-प्यासा, कागज के फूल, चौदहवीं का चांद, साहिब बीबी और गुलाम। फिल्म ‘प्यासा’ की कहानी में गुरूदत्त साहब का प्रेमी का किरदार था। इस फिल्म में अभिनेता अपनी प्रेमिका से शादी के बाद मिलता है। फिल्म के माध्यम से गुरूदत्त साहब ने दिखाया कि पति अक्सर अपनी पत्नी के शादी के पहले उसके प्रेमी को खोजता रहता है और उनका प्रेम अभी भी किस स्तर तक जीवित है उसका पता लगाता रहता है, वहीं शादी के बाद प्रेमिका अपने प्रेमी से पूछती है-वो प्रेम अब नही है ? वो दर्द अभी भी सीने में नहीं है ? वहीं इस फिल्म में मां और बेटे के रिश्ते को उजागर किया है कि नकारापन, बेरोजगारी भाई-भाई और समाज में इज्जत नही दिला पाती, लेकिन मां के दिल में उसका बेटा नौजवान होने के बावजूद मासूम है। गुरूदत्त साहब ने जिस सहज अंदाज में यह अभिनीत किया है, वो मां के प्रति कितना सम्मान है को दर्शाती है। दुनिया में कैसे-कैसे लोग हैं, जहां भाई-भाई के रिश्ते पैसे के आगे कमतर हो गए हैं। इस फिल्म में भाई-भाई, दोस्त कैसे बदल जाते हैं। यह उजागर किया है। लोग कला को किसी खास वर्ग तक सीमित रखना चाहते हैं। समाज के वे लोग जो नई प्रतिभा को उभरने नहीं देते, उनको करारा जवाब देते हुए उनके फिल्म का एक डायलॉग – ‘मियां शायरी सिर्फ दौलतमंदों की जागीर नहीं। ‘साहिब बीबी और गुलाम’ फिल्म में गुरूदत्त साहब ने जो किरदार निभाया था, उसमें सहज, सरल और भोलेपन था जिसे भुलाया नही जा सकता जिसमें वे छोटी बहू से संवाद करते हुए कहते हैं कि ‘मैं भला क्यों आपसे यह सारी बात बताता हूं। इसमें अभिनेत्री मीना कुमारी ने भी जो किरदार निभाया वो भी काफी सराहनीय और यादगार है। फिल्म में गुरूदत्त साहब जिसे प्रेम करते हैं उस पर कभी विवाह के लिए दबाव नहीं बनाया। चौदहवीं की चांद फिल्म के गीत संगीत, फिल्मांकन दर्शकों के लिए पसंदीदा फिल्म थी। उनका गीत ‘चौदहवीं का चांद’ आज भी यादगार है। गुरूदत्त साहब की सबसे ज्यादा चर्चित कर देने वाली फिल्म ‘कागज के फूल’ थी, जो लोगों के लिए विवादास्पद हमेशा से रही कि यह उनकी निजी जिंदगी पर है। गुरूदत्त साहब की जिंदगी और इस फिल्म को देखें तो लगता है कि वो इंसान हिन्दी सिनेमा का कवि, रचनाकार था, बेहतरीन संवाद, गीत-संगीत, फिल्मांकन आदि कई कला को और भी निखारना चाहता था। उनकी निजी जिंदगी में गुरूदत्त साहब से गीता दत्त का विवाह, बच्चे सभी उनके निजी और व्यावसायिक में शुमार थे, लेकिन समाज में फैली वहीदा रहमान जी और गुरूदत्त साहब के रिश्ते की चर्चा कल से लेकर आज तक व्याप्त है। गुरूदत्त साहब अपने काम में हमेशा उत्कृष्टता पसंद करते थे, समझौतावादी उनको पसंद नहीं था। इसी को केन्द्रित कर फिल्म प्यासा का संवाद है, जिसमें वे वहीदा जी को कहते हैं कि ‘सब कुछ खो देने के बाद सिर्फ एक ही चीज बची है मेरे पास, मेरी खुद्दारी।’ किसी काम को अच्छे से अच्छा करने की उनकी कोशिश रहती थी। उनके फिल्मों के डॉयलाग जनसामान्य को जीवनपथ पर मार्गदर्शन करते हैं जैसे ‘जिंदगी की असली खुशी दूसरो को खुश रखकर हासिल की जाती है।’ वहीं उनके निजी जिंदगी में प्रेम की संभावना को तलाशती यह संवाद ‘अगर तुम अच्छी आर्टिस्ट हो शांति, तो मैं भी डायरेक्टर बुरा नहीं’। गुरूदत्त साहब की मौत की घटना की रात को देखें तो लगता है कि वो जुबां के पक्के इंसान थे। उनका सोच ‘ए हार्ट इज बिगर दैन द वर्ल्ड’ (एक विशाल हृदय जिसमें पूरा विश्व समाहित है) को दर्शाती है। उनके जिंदगी में सब कुछ था, सब तटस्थ था, फिर भी उनका बच्चों से प्रेम, बिटिया का प्रेम का महत्वपूर्ण स्थान था, तभी तो घटना की रात टेलीफोन पर अपनी बिटिया से बात करने के लिए गीता दत्त जी से एकबार बात कराने का आग्रह करते हैं और बात नहीं कराने पर ‘मेरा मरा मुंह देखोगे’ कहते हैं। ऐसा लगता है कि ये सारी घटनाएं क्षणिक भावप्रवाह से समय ने उनको सम्हलने का मौका नही दिया और गुरूदत्त साहब मौत का शिकार हो गए। गुरूदत्त साहब की पूरी जिंदगी एक सर्वश्रेष्ठ रचनाकार की रही है, जिनके फिल्मों की जितनी विस्तार से लेख किया जाए, कभी खत्म नहीं होगी।
गुरूदत्त की पुण्यतिथि 10 अक्टूबर पर विशेष- लेखक देवराम,
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