आपके घर पर अगर कोई बीमार पड़ता है तो आप उन्हें लेकर डॉक्टर के पास जाते हैं. इसके बाद डॉक्टर बीमारी को डायग्नोस करके कुछ दवाइयां लेने का सुझाव देते हैं. इसके बाद जब आप मेडिकल स्टोर से दवाइयां खरीदते हैं तो आपको लाल, पीली, नीली, हरी, बैंगनी, सफेद या दूसरे रंगों में टैबलेट्स व कैप्सूल्स मिलते हैं. क्या आपने कभी ये सोचा है कि दवाइयां रंग-बिरंगी क्यों होती हैं? क्या इन रंगों का बीमारी से भी कोई संबंध होता है? आखिर दवाइयों को रंग-बिरंगा बनाने की जरूरत क्यों पड़ी? क्या मेडिकल साइंस में किसी खास कोड के तहत इन्हें रंगा जाता है? अगर आपने कभी ऐसा सोचा है तो आज हम आपको इनका जवाब दे रहे हैं.
उपलब्ध जानकारी के मुताबिक, पहली बार रंग-बिरंगी दवाएं 1960 के दशक में मिलनी शुरू हुई थीं. अब फार्मा कंपनियां दवाइयों के रंग का भी विशेष ख्याल रखती हैं. आज जेल कैपसूल्स के लिए करीब 75,000 से ज्यादा कलर कॉम्बिनेशंस का इस्तेमाल होता है. टैबलेट्स के रंगों और कोटिंग में भी कई बदलाव किए गए हैं. टैबलेट्स और कैपसूल्स के रंगे-बिरंगे होने के भी कई कारण बताए जाते हैं. क्या आप जानते हैं कि सबसे पहली बार टैबलेट्स व कैप्सूल का इस्तेमाल कब और कहां किया गया था?
कब शुरू हुआ गोलियों और कैप्सूल का निर्माण
दवा की गोलियों के सबसे पहली बार इस्तेमाल किए जाने की जानकारी मिस्र सभ्यता के दौर में मिलती है. मिस्र सभ्यता के दौर में दवाओं को चिकनी मिट्टी या ब्रेड में मिलाकर बनाया जाता था. इसके बाद 20वीं सदी तक दवाइयां गोल और सफेद ही बनती थीं. अब तकनीकी विकास के साथ दवाइयों का आकार और रंग तक सबकुछ बदल गया है. दवाइयों के रंग में बदलाव 60 के दशक में शुरू हुआ. इसके बाद 1975 में सॉफ्टजेल कैपसूल्स तैयार करने के लिए बड़े तकनीकी बदलाव हुए. शुरुआत में चमकीले लाल, पीले, हरे और चटख पीले रंग की दवाइयां आती थी.