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इस बार बरसात समय से कुछ पहले आरम्भ हो गई और पावस के प्रसंग के साथ स्मृतियां व परम्पराएं जुड़ गयीं।

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परसों सुबह बारिश थोड़ा थम गई थी। हल्की धूप व खुला आसमान अच्छा लगा। सुबह का नाश्ता कुछ अधिक कर लिया और कबीर जयंती पर उनके प्रेरणास्पद दोहे याद आने लगे। विगत दिवस वर्षा ने आवास का परिसर व सामने की सड़क एक दम साफ कर दी। इसी समय मेरे दस वर्षीय पौत्र रुद्रांश ने आकर कहा, “नीचे कुछ आंटी लोग आपको बुला रही हैं….।” मुझे थोड़ा असहज लगा कि इस उम्र में सुबह सुबह कौन सी आंटी लोग मुझे याद करने आ गईं ? मैंने समझाया कि, “बेटा, तुम्हारी मम्मी के आफिस या दादी की कोई परिचित होंगी,उन्हें बताओ।” लेकिन रुद्रांश ने पुनः कहा, “नही वे सब आपको बुला रही हैं।”
हम सब अपने आवास के प्रथम तल पर रहते हैं और आगंतुक प्रायः दूर से दिखाई दे जाते हैं। खैर, अपने विश्राम की मुद्रा को अनिच्छा से त्याग कर, कुर्ता पजामा की सलवटें थोड़ा ठीक करके, सिर में बचे खुचे बालों को व्यवस्थित कर बाहर आया तो ऊपर सीढ़ियों से ही उन चार अपरचित आगंतुकों को देख कर अपने समीप खड़े पौत्र की बुद्धिहीनता पर तरस आने लगा। तब तक मुख्य द्वार से परिसर में प्रवेश कर चुके प्राणियों ने मुझे संबोधित करते हुए बड़ी अज़ीज़ी से कहा, “नमस्ते बाबूजी..नमस्ते. बड़े दिनों बाद हम आये हैं….. इस बार इनाम लेने। क्या करें ; इस लाकडान ने तो सारा धंदा पानी चौपट कर दिया……….।” रुद्रांश आश्चर्य से मर्दानी आवाज़ वाले जनाने कपड़े पहने सजे-धजे उन व्यक्तियों को देख रहा था जो अब ताली बजा बजा कर गा और नाच रहे थे………और किंकर्तव्यविमूढ़ सा खड़ा मैं अपनी स्थिति से समझौता करने का प्रयास कर रहा था। इनकी आवाज़ से कहीं दूर मुझे सीहोर का बंगला दिखाई दे रहा था, जिसका मुख्य द्वार कई बार दिन में खुला राह जाता था…….वहां होली से कुछ दिन पहले ही रंगोत्सव का माहौल बन जाता था। एक दोपहर में इसी प्रकार सात-आठ प्राणियों का झुंड बंगलें में प्रवेश कर गया और बंगले के वरांडे में आकर गाना शुरू कर दिया……..”तेरे गोरे गोरे ललना के घूंघर वाले बाल” ……”तेरे गोरे गोरे मुन्ना के घूंघर वाले बाल”……
सजी धजी वेशभूषा, भारी आवाज़, कमर और आंखों को सामान रूप से मटकाना और तालियों का शोर मुझे उस समय सामान्य लगा। मैं आठवीं कक्षा में था……..”तेरे गोरे गोरे लल्ला के.
“अम्मी इसकी लेय बलैयां…
अब्बा चूमे गाल……..
तेरे गोरे गोरे ललना के घूंघर वाले बाल…………….”
इनका नृत्य व संगीत किसी पेशेवर संगीत विद्यालय की देन कदापि नही था। लेकिन स्वरों की एकरूपता व बिना किसी आर्केस्ट्रा के तालियों का अनुशासन गज़ब का था। बार बार मेरे कानों में गूंज रहा था, “तेरे गोरे गोरे मुन्ना के……” अगली लाइन मुझे याद नही आ रही। लेकिन मेरी माँ इनकी दुआओं को महत्वपूर्ण स्वीकारती थी और घर में छोटे बच्चों के ऊपर न्योछावर की गई राशियां कुछ मिठाई वगैरह देकर उनकी भावनाओं का समुचित आदर भी करती थी। यद्यपि मेरे परिवार में इतना गोरा कोई था भी नही जिसके रंग को देख कर कोई गीत गाये ! सभी का रंग गेंहुआ था। बल्कि हरसहाय भाई साहब का रंग तो कुछ ऑस्ट्रेलियन गेंहू जैसा था और भाभी का रंग साफ । जिसे देख कर बड़ी बहन निर्मला भाई साहब को चिड़ा दिया करती थी कि तुलसीदास ने लिखा है कि, “बरनी न जाए मनोहर जोड़ी…।
मियां कलूटे, बीबी गोरी……।।”
तुलसीदास ने ऐसा कहां लिखा है, कोई नही पूछता था, लेकिन वातावरण में हास्य छा जाता था।
लेकिन वे स्वर लहरियां ,”तेरे गोरे गोरे ललना के….” अच्छी लगती थी।
एक बार रॉयल मार्केट से सीहोर जाने वाली भरी बस में सामने की सीट पर सजीधजी महिला को अकेले बैठे देख कर उसके पास बैठने का लोभ छोड़ नही पाया था। लेकिन बैठते ही उसकी अतिआत्मीयता से घबरा कर खड़ा हो गया था। पीछे बैठे लोग मेरी बुद्धिहीनता पर हंस रहे थे और मैं खीज मिटाने के लिए ड्राइवर सीट के पास से बाहर झाँक रहा था। भोपाल मंगलवारा में इनके काफी आवास थे जिन्हें अघोषित सामाजिक मान्यता मिली हुई थी।
“देना बाबूजी जरा जल्दी से, भगवान करे बल बच्चे सुखी रहें..” मुझे अब भी समझ में नही आ रहा था कि इन्हें आज क्या देना है, क्योकि मेरे द्वारा दिये गए पचास रुपयों को इनके वरिष्ठ ने इस हिकारत से देखा जैसे मैं इनकी बेइज्जती कर रहा हूँ। पता नही मेरी माँ द्वारा उस समय दिए गए दो-तीन रुपयों की आज क्या कीमत राह गई ? बाद में मेरी पत्नी ने समझदारी पूर्वक तीन सौ रुपये देकर समस्या का समाधान निकाल दिया और वे रुद्रांश को दुआएं देकर चलते बने।
इनकी संस्कृति व सोच सीहोर, भोपाल या रायपुर कहीं भी नही बदली और कोई रौब डालना बुद्धिमानी नही होता। बरसों बाद ये नर्तक मुझे एक बार फिर से सीहोर की यादों में धकेल गए।

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