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काजल की आत्मकथा; लेखिका – प्रज्ञा त्रिवेदी, रायपुर

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मैं काजल हूँ काला कलूटा सा दिखता हूँ लेक़िन हूँ बड़े काम का।
बरसों पहले मुझे गृहणियां घी का दीपक जलाकर उस पर कटोरा उलट कर बना लेती थीं, कालांतर में मैं छोटी डिबिया में फैक्ट्रियों में बनकर आने लगा और अब तक मैं पेन जैसी शक़्ल में ,नामी प्रसाधन कम्पनियों द्वारा बनाया जाने लगा हूँ।
दीपक से ब्रांड तक का ये सफ़र कम रोचक नहीं रहा। मुझे बनाने के तरीक़े बदले पर उपयोग नहीं बदला। लेकिन हां दुःख होता है जब मैं आजकल के डॉक्टर्स के द्वारा ,नन्हे मुन्नों को लगाने से मना किये जाने लगा हूँ और आधुनिक माताओं के द्वारा उपेक्षित हूँ।
पहले छोटे बच्चों की माताएँ मुझे उनकी आँखों मे सजाकर, निश्चिंत हो जाती थीं कि उनके लाल को कोई बुरी नज़र नहीं लगेगी। कितना भरोसा था मुझ पर!
कृष्ण के बाल रूप के जाने कितने वर्णनों में मेरा ज़िक्र आया है। मेरे बिना कृष्ण सहित हर नन्हे का श्रृंगार अधूरा था।
श्रृंगार तो नायिकाओं का भी अधूरा था मेरे बिना।
रूपगर्विता नायिकाओं की बड़ी बड़ी हिरनी सी आँखों का मैं आवश्यक अंग बना , कविगण मेरे साथ साथ जाने कितनी नायिकाओं के कजरारे नैनों के साक्षी बने।
कालांतर में मुझ को कन्याओं ने आई लाइनर नाम दे दिया। और मेरा स्वरूप ही बदल डाला, मैं छोटी बोतलों में तरल की तरह मिलने लगा और ब्रश की सहायता से लगाया जाने लगा।
सुना है आजकल के विवाह समारोहों में यही तरल दुल्हन लगाती है ताकि पसीने और आँसुओं में उसकी आँखें ख़राब न दिखें। मुझे याद है तीन दशक पहले की शादियों में, विदाई के वक़्त दुल्हन रो रोकर अपने गाल काले कर लेती थी और चेहरे की लाली के साथ मिलकर मैं ख़ूब होली खेलता था।
मुझ पर मुहावरे भी बने हैं, काजल की कोठरी में रहोगे तो दाग लगेगा ही। अनेक फ़िल्मी गीत भी मुझ पर बने हैं। कुल मिलाकर मैं श्रृंगार का अटूट हिस्सा हूँ , बालकों के माथे के डिठौने से लेकर सद्यःपरिणीता के कानों के पीछे लगे नजरबट्टू तक शामिल हूँ आपके जीवन मे।

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